३० अप्रैल, १९५८

 

जैसा कि मैंने अनुमान लगाया था, मेरे पास ऐसे प्रश्नोंकी झंडी लग गयी है जो मुझे ३ फरवरीको हुई अतिमानसिक अनुभूतिकी मानसिक रूपसे व्याख्या करनेको बाध्य कर रहे है ।

 

   तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें बताएं और उस सीमातक उसका मानसी- करण करूं जबतक कि एक नयी पद्धति स्थापित न हो जाय और तुम अपनी नयी मानसिक रचनामें आरामसे बैठे रहो... । मुझे तुम्हें निराश करनेका (वेद है, लेकिन यह बिलकुल असंभव है । और यदि तुम उसे समझना चाहते हों जो मैंने लिखा है तो प्रयास करो और अतिमानसिक चेतना प्राप्त करो । बस, मुझे इतना ही तुमसे कहना है ।

 

    इस सनकसे खूब सावधान रहो जो एक पुराने सिद्धांतके स्थानपर नये- को बिठाकर कहना चाहती है : ''ओह! वह झूठा था, पर अब हम नेतृत्व करनेके लिये अच्छा व्यावहारिक मार्ग-दर्शक बनायेगे जो अंतत: सच्चा होगा ।', एक मानसिक रचना कमी सच्ची नहीं हों सकती, और मैं' इसे बनाना अस्वीकार करती हू । मैं उन शब्दोंका प्रयोग करनेको बाध्य थी जिन्हें मनुष्य समझते है, पर मैंने यह प्रयोग यथासंभव असंगत ढंगसे किया (!) ताकि वह बहुत ही मानसिक न हा जाये, और मैं मानसिक ढंगके अनुरूप संगत होनेसे इंकार करती हू । यह बात सिर्फ उन प्रश्नोंके लिये ही नहीं है ना मुझसे यहां पूछे गये है या मुझे पत्रद्वारा प्राप्त हुए है, वरन् उन सबके लिये भी जो इस विषयपर आनेवाले हैं, अतः अब प्रश्न करना निरर्थक होगा ।

 

   मैं हर एकको वही सलाह दंग : ''प्रयत्न करो, काम करो, अपने-आपको खोला, अपने-आपको पूरी तरह नयी शक्तिके सुपुर्द कर दो, और एक दिन आयेगा जब तुम्हें अनुभूति होगी ।''

 

    अनुभूतिके साथ-साथ, तुम यह भी ठीक-ठीक समझ जाओगे कि कितने निरर्थक थे ये प्रश्न ।

 

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